Wednesday, 1 August 2012

दो शब्द

  • कबीर नाम आते ही एक ऐसे संत की छवि हमारे मन मस्तिष्क में उभर आती है ।जिन्हें  कुछ लोग फक्कड़ घुमक्कड़ संत; समाज सुधारक;  निर्गुण पंथी दार्शनिक मानते हैं , तो कुछ लोग सतगुरु मानते हुए अपने आराध्य के रूप में पूजते हैं । कुछ लोग  जो  कबीर को समाज सुधारक के रूप में स्वीकार करते हुए उन्हें हिन्दू मुस्लिम धर्म विरोधी मानते है और उनके दोहों एवं साखियों का उदहारण लेकर अपने - अपने अर्थ लगाते  हैं । वहीं  कुछ लोग उन्हें अपना आराध्य मानते हुए  कबीर पंथ के नाम से एक अलग संप्रदाय का गठन करते हैं या स्थापित करते हैं । जिन कुरीतियों का कबीर दास  ने अपने जीवन पर्यन्त  खण्डन  करने का प्रयास किया कामोवेश उनका उद्धरण धारण करने वाले लोग अपने मन माफिक व्याख्या करते हुए अपनी - अपनी दुकान चलने लगे। ऐसे में कबीर के  दर्शन को पुनः स्थापित करने एवं उसकी सम्यक विवेचना की आवश्यकता  प्रतीत होने लगी है ।
  •  कबीर सत्यसिधान्तो के विवेचना के प्रतिपादन से पूर्व कबीर के बारे में अवधारणाओं एवं भ्रान्तियों पर  स्वयं को कबीर की ही भांति सभी बिन्दुओं पर निर्मल  मन से पूर्वाग्रह  रहित रहते हुए  तत्कालीन समय  (कबीर के जीवन कल का समय 1398 से 1518.) क़े  राजनैतिक, धार्मिक, दार्शनिक, भौगोलिक  आदि परिस्तिथियों को दृष्टिगत रखकर मुख्य धर्म हिन्दू (सनातन) एवं मुस्लिम (इस्लाम) के अच्छाईओं , कुरीतियों , पूजा पद्धतियाँ एवं दर्शन पर  तुलनात्मक परिचर्चा भी समाचीन है ।
  • उपरोक्त प्रस्तावना को दृष्टिगत रखते हुए निर्मल  मन से पूर्वाग्रह  रहित रहते हुए स्वतंत्र अभिब्यक्ति / निबंध के माद्ध्यम से इस ब्लाग पर परिचर्चा सतसंग स्वरूप प्रस्तावित / आहूत है ।