- आध्यात्मिक ग्रंथो में कुंभ की चर्चा है। इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम के कुम्भ की विशेष चर्चा है। मकर संक्रान्ति के पर्व से माघ पूर्णिमा पर त्रिवेणी में स्नान होता है। लोग अपने पाप(कष्ट ) निवारण एवं पुण्य का लाभ लेने जाते है । संगमतट पर स्नान करने वालों का लम्बा ताता लगता है। सिद्ध महात्मा, त्यागी, संत, भक्त, जिज्ञासु एवं तमासगीरों की भारी भीड़ के बीच आध्यात्मिक ,धार्मिक ,राजनैतिक एवं सांकेतिक स्नान भी किये जाते हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा सुदूर बैठे एवं स्नान से वन्चित लोगो को भी संगम का दृश्य स्नान कराया जाता है, तथा व्यापारी वृत्तिधारी लोग भी धनधान्यता के इस विराट संगम में दुबकी लगाने से नहीं चूकते है। सब अपने लाभ की दुबकी लगाते है। बहुसंख्यक जन इस पावन तट का लाभ लेने से अपने को नहीं रोक पते हैं। रोकना भी नहीं चाहिए हमारे भगवान बड़े दयालू हैं। वो क्षण भर में हमारे सभी पापो को हर लेते हैं, और सबकी खाली झोली भर देते हैं। संतवाणी भी है:-
"नेकी कर दरिया में डाल
"।
- संसार को खुली आँखों से देखने पर स्पष्ट दिखता भी है, कि जब दो दरिया नेकी को ढोती हुई जहाँ संगम पर मिलाती हैं, वहाँ हम अपने पाप को अधिक आसानी से धुल सकते हैं "पाप कर संगम में डाल ।" है न अजब तमाशा। मेरी भी हार्दिक इच्छा थी, कि संगम चलूँगा और स्नान करूँगा परन्तु दुर्भाग्य ने हमारा साथ दिया और हम भौतिक स्नान से वंचित रह गये । हमने अपने गुरु का स्मरण किया, कि मै क्यों स्नान से वंचित रह गया। हमें बहुत ध्यान धारण करना पड़ा और हमने निश्चय किया कि हम त्रिवेणी में अवश्य स्नान करेंगें, किन्तु दुर्भाग्य ने फिर भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा। शायद हमने कोई पाप न किया हो या फिर गुरु दरिया में नित्य स्नान करने से संगम स्नान की आवयश्कता संभवत: समाप्त हो गयी हो|
"गुरु दरिया में नहाना हों, जस दुरमति भागे।"
- इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम पर तीन पवित्र नदियों का संगम होता है। गंगा, यमुना, और गुप्त सरस्वती कहा जाता है कि सरस्वती नदी गुप्त हैं और भूमि के नीचे से प्रवाहित होती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि गंगा, यमुना के इस पवित्र संगम पर ज्ञान रूपी सरस्वती का प्रवाह होता है, इसलिए इसे त्रिवेणी कहते हैं।आध्यात्मिक दृष्टिकोण है कि इसी त्रिवेणी संगम पर कुछ अमृत की बूदें छलकी थी यहाँ कुम्भ या महाकुम्भ (कलश या घड़ा) है जो गुप्त है। इसी अमृत की चाह सभी को आकर्षित भी करता है। इसी अमृत की चाह की माया सबको अपने में वशीभूत करती है। पाप धुला कि नहीं या कितना कटा और कितना बाकी बचा, यह तो स्नान करने वाले भाई-बन्धु ही बता सकते है। पुण्य का फल भी स्नान करने वाला बांटता है। हम उसी की राह अब निहार रहें हैं।
- त्रिवेणी की पवित्रता एवं वहां के अमृत कुम्भ पर हम चर्चा करने से पूर्व कुछ अन्य पहलू पर भी चर्चा करना चाहेंगे।"अनेकता में एकता " का मंत्र सिखाने वाली इस सनातन संस्कृति को हम शिरोधार्य रखते है और हमारी इस स्थान पर पूर्ण श्रद्धा है। मानव जीवन प्राप्त करने के पश्चात प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन काल को पूर्ण रूप से जीते हुए मुक्ति को भी पाने का प्रयास करता है और दो नाव या दो धारा (लोक एवं परलोक) पर आकर बध जाता है, अर्थात एक संसार की ओर और दूसरी मुक्ति हेतु आध्यात्म की ओर "एक मिलावै एक छुड़ावै " अर्थात एक माया से मिलाती है और दूसरी माया से दूर ले जाती है। ऐसे में यह बेचारा जीव यदि दोनों धाराओं में बहना चाहे तो उसका वाही हश्र होगा जो दोनों पाँव को दो विपरीत दिशा में खींचने से होता है।
- अत: जीव दोनों धाराओं के संगम पर आना चाहता है। परन्तु संगम पर जब धारा बह रही है तो बिना एक डोर से बधे वह संगम पर स्थिर नहीं हो सकता है।यहाँ जिस डोर की आवश्यकता होती है वह है ज्ञान की, जिसमे सभी बंधना चाहते है। यही ज्ञान की डोर सरस्वती (गुप्त नदी)है, इसकी प्रत्येक धारा (अलग - अलग पंथ, विचार, संप्रदाय, धर्म,मत-मतान्तर आदिक) में अमृत की कुछ बूंद (गुरु का मंत्र रूपी वचन) जो जीव को पाप (संशय दुःख) को नष्ट कर देती है। किन्तु अब भी जीव (मनुष्य) इस त्रिवेणी (माया,मुक्ति व ज्ञान) के संगम पर मेला (भीड़) रूप में डुबकी लगता(डूबता -उतरता) है मुक्त नहीं होता। कष्ट कम अवश्य हो जाता है।संगम पर इसी स्नान पर जीव अमृत भी पीने आता है। अमृत का अभिप्राय है जो न मरे ऐसे अमृत ज्ञान को पीकर जीव अमरत्व को प्राप्त करे।
"माया मरी न मन मरा, मरि - मरि गया शरीर "
- अर्थात जब तक माया और मन नहीं मरेगा तब तक मुक्ति संभव नहीं है, चाहे शरीर जितनी बार मरे, चाहे जितनी योनियों में जाये। आप इस पर विचार कर सकते है, क्योकि ज्ञान रूपी सरश्वती में स्वयं को भक्ति रूपी साबुन से धुलकर आत्मा को परमात्मा, जीव को परमेश्वर से जोड़नेवाली जिस अदृष्य डोर को सभी जीव पकड़ने के लिए तीनों धाराओं के संगम (त्रिवेणी) पर संकल्पबद्ध होकर आबद्ध होने को प्रयास रत है; वह तो डोर का एक किनारा है, जो जीवन के कष्ट को रोकने का मात्र निमित्त साधन है। जीव अब भी संगम में स्नान कर डूबकी लगा रहा है। स्वभाविक है कि डोर का दूसरा किनारा भी है; जो परमात्मा, परमेश्वर, परमचैतन्य, परमानन्द, विभू से आबद्ध है, नहीं तो सभी गुरु और चेला बह जाते।माया की इस नगरी में फर्क बस इतना है कि गुरु डोर पर अपनी-अपनी भक्ति-शक्ति से ऊपर की ओर यथा योग,ध्यान साधना,युक्ति के बल से लटके हैं और चेला लोग गुरु की टाँगें पकड़ कर लटके है, तथा दोनों अपने-अपने रक्षा (मुक्ति) में भी लगे है। जब गुरु ही मुक्त नहीं तो चेला का क्या होगा ? हम यहाँ पर यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि गुरु के लिए एक वाणी सदगुरु साहब की है:-
"गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागों पाव|
बलिहारी गुरु आपनौ गोविन्द दियो लखाय|| "
बलिहारी गुरु आपनौ गोविन्द दियो लखाय|| "
- कहीं- कहीं लखाय के स्थान पर बताय शब्द का प्रयोग पाया गया है। दोनों का अभिप्राय आप एक ले सकते हैं किन्तु उसमे भेद है। लखाने का अर्थ है इशारे से बताना और बताने का अर्थ है अपने पास खड़े दो अपरचित से परिचय कराना। अतः स्पष्ट है की परमपिता परमात्मा या महाचैतन्य विभु या परमेश्वर और जीव (आत्मा) के बीच में जो अदृश्य सम्बन्ध है, के मध्य गुरु का स्थान है। वह खूँटी जिसमे डोर बंधी है वह भी विभु (गोविन्द) के पास है और सभी लटके लोगों से दूर है।
- गुरु भी शिष्य के भार से बीच डोर पर ही अटके हैं और इसी खींचातानी के कारण वे भी इस संगम पर मेला रूप में बधे है।अमृत की चाह भी मन में है।अत: मुक्ति नहीं मिल पा रही है। मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिए गुरु नहीं, सदगुरु के साथ नहीं, बल्कि उनके सानिध्य में उनके इशारे पर स्वयं के प्रयास (साधना) से मुक्ति मार्ग पर चलना होगा।
"आगे-आगे गुरु पीछे-पीछे चेला"
- अत: यह गुरु की बलिहारी (कृपा) है कि उन्होंने गोविन्द को लखा दिया अब गोविन्द तक पहुंचना जीव के स्वयं के यत्न का विषय है।
- भगवान आदि देव शिव ने योग की महिमा जगत माता पार्वती को बताया जिसका वर्णन इस प्रकार है;- दाँयी नाक से चलने वाली स्वास को ईंगला या गंगा, बाँयी नाक से चलने वाली स्वास को पिंगला या यमुना कहते है। यह प्रकृति में प्रवाहित है (प्रकृति कहते है नासारंध्र से नीचे की समस्त शारीर रचना को)। तीसरी नाड़ी से प्राण वायु प्रवाहित होती जिसे ब्रह्मनाडी, तंत्रिका नाड़ी या सुषुम्ना नाड़ी कहते है। सुषुम्ना गुप्त नाड़ी (नदी) सरस्वती है, जो ब्रह्मरन्ध्र से नीचे गगन (नासारंध्र से ऊपर की समस्त शरीर रचना) गुफात्रिवेणीजहाँ गंगा और यमुना से मिलाती है उसे त्रिवेणी संगम या प्रयाग कहते है। त्रिवेणी से ठीक ऊपर सहस्त्रार चक्र है इसी को शुन्य चक्र भी कहते है। सहस्त्रार चक्र पर सहस्त्रदल कमल है इसी को कैलाश भी कहते है। भगवान शिव का निवास इसी कैलाश पर है।सहस्त्रदल कमल के नीचे बाँयी ओर योनी नामक त्रिकोणाकार शक्ति केंद्र है, जहाँ चन्द्रमा (पियुषिका ग्रन्थि) का स्थान है। इसी त्रिकोणाकार शक्ति केंद्र से सदा अमृत (सोमरस) झरता रहता है। खेचरी मुद्रा में योगी की ऊपर की ओर चढ़ी (गगन चढ़ी) जिह्वा इसी अमृत का रस पान करती है। यह वही अमृत है जिसका पान कर सकने वाला योगी अमर (पियुषिका ग्रन्थि से निकले स्राव से शरीर का कायाकल्प होता है) हो जाता है। सहस्त्रदल कमल पर ही सभी सिद्धयोगी शुन्य समाधि लगाते है। यहाँ जब तक समाधि लगी रहेगी तभी तक जीव काल से बचा रहेगा किन्तु छुटते ही काल से बध जाता है, इसलिए ये भी मुक्त नहीं है। जीव जब तक शुन्य समाधि स्थल से ऊपर ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकालकर इस पिण्ड ब्रह्माण्ड से परे ऊपर नहीं उठेगा तब तक मुक्ति की आशा बेकार है।
- कोई भी कवि, लेखक,वक्ता, नियन्ता और चिन्तक अपनी बात या अभिव्यक्ति को लेख, नाटक एवं प्रयोगों के माध्यम से प्रगट करता है उसी प्रकार इस संसार के जीवों के कल्याण के भाव से वशीभूत हमारे पूर्वजो, द्रष्टाओं ने लेख (शास्त्र , ग्रन्थ, वेद , पूराण आदि), नाटक (महोत्सव, तीरथ , रामायण , महाभारत आदि कथानक ) एवं प्रयोग (साधना, योग, चमत्कार आदि) से मानव मात्र के कल्याण हेतु नाना रास्ता ( वाट ) बतायें और माया की नदी में जीव के सुरक्षित स्नान के लिए विविध घाट भी बना लिया जहाँ मुक्ति की चाह लिया, जीव माया की नदी में विभिन्न सम्प्रदाय, धर्म, पंथ, दर्शन आदि के घाट पर छान्नवें पाखण्ड के सहारे नाना देवी, देवता व गुरु के साथ डुबकी लगवाते रहे हैं।
- जगत कल्याण हेतु न जाने कब से इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम पर मेला लग रहा है, किन्तु इसकी महत्ता राजा हर्षवर्धन के काल से ही बढ़ी है और उत्तरोतर बढती ही जा रही है। इतिहासकार अंतिम हिन्दू राजा हर्षवर्धन के काल से ही कुम्भ का प्रारम्भ होना मानते है। परमपिता परमात्मा इस संगम तट पर एकत्र सभी जीव पर उपकार कर एवं उनको "त्रिवेणी के कुम्भ" स्नान को प्रेरित करतें हैं ! जिससे सभी का कल्याण हो!
- सदगुरू कबीरसाहेब कहते है की,
"आओ संतो मेला कीजै, खाली हो तो भरि-भरि लीजै ।
भरा हुआ है, तो छकि-छकि पीजै|| "
भरा हुआ है, तो छकि-छकि पीजै|| "
- आओ सन्तो मेला (सत्संग , ज्ञान का मंथन, आदान-प्रदान) कीजै, यदि आपकी झोली (जिज्ञासा) खाली है (सन्तुष्ट नहीं है) तो भरि-भरि लीजै। यदि भरी है तो छकि -छकि (आनंद से आदान-प्रदान) पीजिये (ज्ञान के मंथन से निकला अमृत का पान करना) यहाँ सदगुरू कबीर साहब ने एक और संकेत जीव को चेतने का किया है कि एक गुरु के वचन सुनकर उसे सदगुरू मत मान ले इसके लिए मेले में जायें (सत्संगो में ) और छकि -छकि कर पियें जब पुर्ण तृप्ति हो जाय और उसमें से जिस दुकान पर आपकी झोली रसों से भीग कर तीन पुत्र (अहं, वासना और मोह) और पत्नी (माया) से वैराग ले ले। उसी दुकानदार (सदगुरू) का स्थायी खरीदार बने (दीक्षा प्राप्त करें) । वही गुरु आपको विभु तक का मार्ग लखायेंगे (सौदा देंगे) और आपको अपने साधना के बल (मन से खाने का आनन्द) से खुद को मुक्त पाना होगा। मिठाई खाये बिना स्वाद नहीं देगी ( बिना साधना किये गुरु दीक्षा से कुछ हासिल नहीं होगा) ।
- सदगुरू बंदी छोर कबीर साहेब को हमारी साहब बन्दगी है। प्रार्थना है कि अपनी त्रिवेणी में स्नान कराकर हम सभी जीव को मुक्ति का मार्ग लाखयेंगे। आपने तो:-
"जिव मुक्तावन करणें साधुन धरा शरीर "
- अतः
"हमें उबारें, हे प्रभू सत्-सत् बार निहोर। "