एक बार मै एक सत्संग में गया था । जहाँ पर कबीर साहेब के भक्तों का समूह कबीर साहेब के सिद्धांत दर्शन पर मंथन कर रहा था। बिषय था, गुरु। शिष्य अपने गुरु से अपने मन की जिज्ञासा प्रकट करते हुये प्रश्न पूछता है कि गुरु और गोविन्द (परमात्मा) यदि एक साथ प्रत्यक्ष खड़े हों तो ऐसे में प्रथम किसके चरण स्पर्स करनें चाहिये। प्रश्न कठिन है, उत्तर उससे भी कठिन। कबीर साहेब ने संकेत में उत्तर दिया और अर्थ समझने का भार जिज्ञाशु शिष्य पर छोड़ते हुए कहा " बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो लखाय "। कबीर साहेब ने पहले गुरु या पहले गोविन्द के चरण स्पर्स के विवाद से स्वयं को अलग रखते हुए कहते हैं कि गुरु की बलिहारी (कृपा) है कि गोविन्द (परमात्मा ) को लखाया, गोविन्द को पाने का मार्ग बताया।
प्रथम गुरु की वन्दना आवश्यक है, क्योकि जिससे गुरु प्रसन्न न होंगे उसे गोविन्द को पाने का उचित व सही मार्ग बतायेंगे या नहीं यह तो गुरु की कृपा पर ही निर्भर है। प्रथम वंदो गुरु चरण, जिन अगम गम्य लखाइयां। गुरु और शिष्य दोनों का आराद्ध्य गोविन्द हैं, दोनों का मार्ग व गम्य एक होनें के कारण प्रथम वन्दनीय गोविन्द ही हैं। जो सर्वपूज्य है, जिसका पद सर्वोच्च वह ही प्रथम पूज्य है। अब यह शिष्य के विवेक पर है कि वह किसके चरण प्रथम वन्दगी करे ? स्पष्ट है की कबीर साहेब ने कभी भी गुरु के या गोविन्द के मध्य प्रथम चरण वन्दगी के विन्दु पर गुरु के बजाय गोविन्द की ओर इशारा किया है। सच है कि "जग गुरुआ गति कही न जावे। जो कछु कहूँ तो मारन धावे।।" कबीर साहेब की वाणी :-
" गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागों पाय ।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो लखाय।।"
का विकृत भाव निकल कर स्वयंभू जगत गुरुआ लोग अपने शिष्यों से अपनी ही पूजा करानें लगे हैं।सच है कि:-
जैसा जाको गुरु मिला, ताकी तैसी बुद्धि।
"गुरु रोगी, रोगी भै चेला। पौ का रोग दोऊ घट मेला ।।
अंध-अंध को राह बतावे। कहु केहि भांति मंजिल पहुँचावे।।"
कबीर साहेब कहते हैं कि :-
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, खोज करो गुरु ऐसा।
जेहि ते आप अपन पौ जानो, मेटो खटका रैसा ।।
बिन गुरु ज्ञान दुंद भौ, खसम कही मिलि बात।
युग-युग सो कहवईया, काहू न मानी बात।।
जो कहा मान मन मेरो। तौ गुरु शब्द विवेकी हेरो ।।
चार भेद भेदी जो होई। कहैं कबीर गुरु है सोई।।
चार भेद का मर्म न जाना। सो गुरु यम के हाथ बिकाना।।
गुरु जौहरी जो भेद बतावे। औघत घाट लखाइयां।।
गुरु पूरा होय सोई लखावै , बाँह पकरि लोक पहुँचावै ।
गुरु के बारे में कबीर साहेब कहते हैं कि :-
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गढ़-2 काढ़े खोट ।
अन्तर हाथ सहार दे बाहर मारै चोट ।।
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गढ़-2 काढ़े खोट ।
अन्तर हाथ सहार दे बाहर मारै चोट ।।
गुरु धोबी सिष कापड़ा साबुन सिरजनहार ।
सूरत शिला पर धोइये निकसे ज्योति अपार ।
गुरु दरिया में नहाना हो , जा से दुरमति भागे ।
सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि गुरु तो कुम्हार है, धोबी है। गुरु अपनें शिष्य को तारासता है। उसके मन के मैल को धोता है। उसे इस योग्य बनता है की वह निर्विकार हो कर पूर्ण मनोयोग से अपने आराध्य को प्राप्त कर सके।"गुप्त प्रकट कहु कैसे बूझै। बिन गुरु ज्ञान आँख नहिं सूझै।।"अपने आराध्य को प्राप्त करने के लिये शिष्य को स्व साधना करनी होगी, गुरु तो मार्गदर्शक बनकर साधना को सरल व सुगम बनाते हैं, गुप्त को प्रकट करते हैं । जो गुरु जिस मार्ग के स्वयं पथिक होंगे अपने शिष्य को उसी मार्ग का अनुकरण करायेंगे तथा गुरु के ज्ञान या पहुँच का जो स्तर होगा वहीँ तक शिष्य को पहुंचा सकेंगे । जैसे-जैसे शिष्य का स्तर ऊँचा होता जाता है ,शिष्य , गुरु व गोविन्द का स्वरूप एकाकार होता जाता है (आत्मा एवं परमात्मा आलेख देखें )।
सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि :-
" है जाहिर कोइ जानत नाहीं, ताको कौन लाखावे हो । कोटि ज्ञान जप तप कर हारे, बिन गुरु कोई न पावे हो।।"
" है जाहिर कोइ जानत नाहीं, ताको कौन लाखावे हो । कोटि ज्ञान जप तप कर हारे, बिन गुरु कोई न पावे हो।।"
जैसे हमारे घरों में बिजली के तार में करेंट दौड़ती है परन्तु हमें दीख नहीं पड़ती है। जैसे ही कोई बिजली का स्विच दबाता है; बल्ब जलने लगता है, पंखा चलने लगता है। जिस प्रकार स्विच दबाने के बाद हमें ज्ञात होता है कि तार में विद्युत् करेंट है उसी प्रकार से जब गुरु शिष्य का एक बार स्विच दबाता है तो शिष्य के अन्दर ज्ञान का करेंट दौड़ जाता है और उसके अन्दर के चेतन का बल्ब जल जाता है, तब प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है। फिर तो क्या विद्युत् धरा बहती रहती है: बल्ब जलता रहता है, प्रकाश होता रहता है। अब स्विच दबाने वाले गुरु की यह योग्यता है कि वह यह भली भांति जानता हो की बल्ब फ्यूज तो नहीं है । तार में बिद्द्युत धारा है या नहीं तथा बल्ब उस विद्दयुत धरा के वोल्टेज को धारण करने के योग्य है भी कि नहीं । हमें ऐसे ही विवेकी गुरु की खोज करनी चाहिए। जबतक आप को सद्गुरु प्राप्त न होजाय तब तक खोज जारी रहनी चाहिए । गुरु करो एक सौ पाचा, जब तक गुरु मिलें नहीं सांचा ।
हमारे घर परिवार में हम देखते है कि जब हम अपनी लड़की की शादीके लिए सुयोग्य वर (दूल्हा) खोजते हैं तो हमें वर की तलाश में कई माद्ध्यम (अगुआ) का सहारा लेना होता है। विना उचित माद्ध्यम के सुयोग्य वर की तलाश पूर्ण नहीं होती है। आप यह पाते हैं कि जो अगुआ दोनों पक्षों लड़की एवं लड़का को सम भाव से जानता है, के द्वारा कराई गयी शादी निर्विवादित एवं सुखद होती है। इसी प्रकार लड़की (आत्मा ) एवं लड़का (परमात्मा) के निर्विवादित एवं सुखद मिलन में अगुआ (गुरु) की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। परन्तु जैसे लड़का एवं लड़की की शादी करने के पश्चात अगुआ स्वयं को दोनों के मद्ध्य से हटाकर तटस्थ हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु शिष्य को गोविन्द से परिचय कराकर स्वयं को भी तटस्थ कर लेता है। इस प्रकार गुरु शिष्य पर उपकार कर स्वयं पर गोविन्द की कृपा का दक्षिणा अर्पित करता है। जो गुरुआ लोग भक्तों को अपनी पूजा करने को प्रेरित करते हैं वो लोग भक्तों का उपकार नहीं करते है वल्कि उनका उपहास करते है। भक्त अपने गुरु का स्वयं पर किये उपकार के कारन गुरु को गोविन्द की ही भाति वन्दनीय पद देता है तो ऐसे भक्त को साधुवाद ।
साहेब वन्दगी !!